फिक्र
चंद्रमा की शीतलता मे तल्लीन है, आज मेरा मन | दसो दिशाओं में ढूंढ रहा है उत्तर, उन प्रश्नों का जिसके प्रशंछिंह से विचलित है मन | डूबते हुए अपने ही खयालों मे शांति की खोज कर रहा, तैर रहा पर थक सा गया है | पूछ अपने आप से क्यू कर रहा है फिक्र? अंत नहीं इस भ्रमजाल का, बंधन है ये जिसकी डोर तेरी हथेली पर | छोड़ दे उन विचारो को जिन्हे किनारा समझ कर थाम लिया था तूने| रात मे छायी है अँधियारी, मन मे नहीं आंखो के पार चंद्रमा की रोशनी में भी ढूंढ सकता है तू चल, पहल कर | समय है बाँध के टूटने का रोक मत अब अपने आप को | फिक्र कर जीवन मे तू खो चुका अनंत आनंद आहत मन को शांति के सुमन सा बना पंखुड़ियाँ जिसकी कोमल हो पर हो खिली हुई| उदासीन होकर इस जीवन मे महसूस कर शांत वायु की सौम्यता को स्थिर कर अपने मन को, सोच | समय का रुख तु जानता नहीं इसीलिए, उलझनों मे फंस कर भी अब फिक्र मत कर | ©gshree